रणकार
ऐसा माना जाता है कि बुद्धि का प्रयोग करने से हर समस्या का निवारण मिल जाता है, मिल सकता है. पर ये बात शत प्रतिशत सच नहि है. कभी कभी ऐसा भी होता है कि बुद्धि का प्रयोग करने से समस्या का निवारण नहि भी मिल पाता है. मान लिजिए कि ट्रॅन में आप प्रवास कर रहे हो और किसी कारणवश ट्रॅन देरी से चल रही है, तो जल्दी से कहीं पहूंचने के लिये बुद्धि का कितना भी प्रयोग किया तो क्या फायदा? बुद्धि का प्रयोग करने से ना ही आपको सुपर मेन जैसी शक्ति पमिल जाएगी और ना ही हमारे देश की ट्रॅन अचानक ही जापान की बूलॅट ट्रॅन की तरह तेज़ रफ्तार से दौड़ने लगेगी. ईसीलिये तो, कुछ कुछ स्थिति ऐसी होती है जहां सचमुच बुद्धि का प्रयोग ना ही करे तो अच्छा रहता है. द्रष्टांत के तौर पर, यदि कोई व्यापारी परिवार के साथ कहीं घूमने-फिरने जाए, वो भी बडी़ मुश्किल से कुछ दिनो का समय निकालकर, तो वहां भी उसके मनोजगत पर अगर व्यापार का ही टॅन्शन छाया रहे तो क्या फायदा? घूमने-फिरने गये तो दीमाग पर जो़र डालने की नहि, उसे शांति देने की आवश्यकता होती है. दीमाग नामकी मशीन भी कभी कभी परिवर्तन नाम के मॅन्टेनन्स की अपेक्षा करता है. जब उसका उपयोग करने का समय आये तब उसे रॉकॅट की तरह चलाने के लिये कुछ सीधे-सादे नियमों का पालन करना ज़रूरी है. ऐसे नियमों का जो पालन नहि करते है वो बुद्धिशाली भी समय के चलते साधारण विचारशक्ति का भोग बन जाते है. और मूर्ख-साधारण लगने वाले लोग सही समय पर, सही विचार करके चमत्कार कर दिखा सके है. ये सच ही है कि दीमग को चलाने से उसे समज़ने पर ध्यान देना ज्यादा आवश्यक है. ईस कला को आत्मसात् करना अनिवार्य है. जिस तरह रात को जागने का और दिन में सोने का विचार अधिकतर लोग नहि करते उसी तरह हर बात में विचारशील होना पड़ता है. बस, ये बात पर गौर करके दीमाग को ऑन और ऑफ्फ करने का काम करते जाईए, बहूत लाभ होगा.
– संजय वि. शाह ‘शर्मिल’
Sanjay V Shah દ્વારા
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रणकार
कैसा विरोधाभास प्रवर्तमान है ईस जगत में! कम्प्युटर के लिये जो चाहिए वो सीडी़ की कीमत सिर्फ दस रूपये. रॅस्टॉरां में जो मिलता है वो ज्युस का एक ग्लास चालीस रूपये का! महंगाई ने टॅक्नॉलोजी को बेहद सस्ता कर दिया है और एक वक्त के खाने को आश्चर्यचकित कर दे उतना महंगा. आम आदमी की हालत ईस विरोधाभास ने बहूत ही विकट कर डा़ली है. फिर भी सब को जीवन जीना तो पडे़गा ही और गाडी़ आगे भी ले जानी पडे़गी. हां, ईस काम को अच्छी तरह करने के लिए ज़रा सी समज़दारी दिखाना भी महत्त्वपूर्ण है. उदाहरण के तौर पर, अगर हमारा अखबार उसके दाम में सिर्फ आठ आना- एक रूपया बढा़ देता है तो हम चिल्लाने लगते है. लेकिन उससे एकदम विपरित, घर में डे़ढ सौ रूपये में लिया गया और अच्छे से चल रहा कॅबल कनेक्शन हमे यूं ही बूरा लगने लगता है और हम दिखावे के पीछे, दूसरो को देखकर डी़टीएच सर्विस ले लेते है. ऐसे खुश होकर कि मानो कॅबल कनेक्शन में तो कभी कोई चॅनल दिखता ही नहि था! लक्झरी, फॅसिलिटी और स्टाईल के नाम पर लोग न जाने कितना रूपया खर्च कर बैठते है. दूर की सोचे बिना ही. दिखावे के लिये लोग बीस-पच्चीस हजा़र का मॉबाईल हॅन्डसॅट चुटकी बजाकर खरीद लेते है, लेकिन घर पर अगर संतान दो-पांचसौ रूपये का खिलौना मांगेगा तो लोगो को गुस्सा आ जाता है. उस महंगे मॉबाईल में जो फॅसिलिटी दी गई है उसमें से सचमुच में कितनी काम आती है वो तो भगवान ही जाने. ऐसे ही कितकितने विरोधाभास समाज के हर पहलू में, हर वर्ग में और हर कार्य में फैल चूके है. जीवन में भी. ईन विरोधाभास से कभी छूटकारा पाओ, समज़दारी बरतो तो यह पता चलेगा कि महंगाई के ईस कठीन युग में भी हमारी जेब में लडने की बहूत ताकत है. समय बेशक कठीन है लेकिन कुछ नासमजी़ से अलिप्त रहे, संयम रखे तो ईस समय का सामना करना आसान हो जाएगा. एक दिन सुबह से लेकर रात तक सोचना ईस छोटी सी बात पर. शायद खुद की ही गलतीओं पर हंसना आएगा और उन्हे सुधारने का द्रढ मनोबल भी उसी से प्राप्त होगा.
– संजय वि. शाह ‘शर्मिल’
Sanjay V Shah દ્વારા
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रणकार
भारतीय ईन्सान कैसे है? पचास लाख रूपये की पॉश कार में घूमे-फिरे फिर भी जब उस में से उतरेंगे तब बडी़ जो़र से, पटक के उसका दरवाजा़ बंद करेंगे वैसे. या फिर प्रति स्क्वॅअर फूट २२,००० के घर में रहेंगे फिर भी घर की बालकनी में तरह तरह के कपडो़ के साथ सफाई के फट्टे भी सूखाने को टांग ही देंगे वैसे. या फिर कहिए कि मल्टिप्लॅक्स में सांठ रूपये का पॉपकॉर्न का पॅकेट बिना आपत्ति खरीदेंगे लेकिन किसी फेरीवाले से दस रूपये के चना लेते वक्त अवश्य उसके साथ भावताल भी करेंगे और भेजाफॉडी भी करेंगे वैसे. कुछ कुछ बाते जैसे प्रकॄति का हिस्सा हिस्सा ही बन गई है हमारे देश की प्रजा के लिए. संस्कारी, समज़दार और सौजन्यशील भी है हम. सिस्टमॅटिक, संतुलित और शिस्त के आग्रही नहि है हम लोग. कभी भी, किसी के भी साथ हम कुछ भी कर बैठे ऐसे भी है. दिखावे के लिए समयपत्रक हम रखते है लेकिन समय के अनुसार कभी भी नहि चलेंगे. फिर ईस देश का होगा तो क्या होगा? प्रगति के पंथ पर सिर्फ ईस देश की नहि, हर ईन्सान की नीजी गाडी़ उस गति से नहि चल पाती जिस गति से चलनी चाहिए. चाहे हम बंजारा हिल्स में हो या बंगाल में, गंदगी, अराजकता और दिक्कतें हमारा पीछा छोडती ही नहि. ईसी मूलभूत स्वभाव के कारण ही ना हम ईस बात का गर्व कर सकते है और ना ही हमारा देश वैसी प्रगति कर पा रहा है जिसे देखकर दुनिया भारत का द्रष्टांत देने लगे. ये सब पढ़कर लेकिन परेशान ना होईए. छोटी छोटी बातों में द्रढ मनोबल रखकर, सुनिश्चित रहकर अगर हम परिवर्तन करना चाहेंगे तो हम बहूत आगे जा सकते है. बिगड़ना या बिगाड़ना संगत से हो जात है पर सुधरना-सुधारने का कार्य तो हर ईन्सान को अपने आप ही करना पड़ता है.आप खुद अपने लिए ईस बात पर सच्चे मन से अमल किजिए, फिर देखिए, आपका भी भला हो जाएगा और देश का भी.
– संजय वि. शाह ‘शर्मिल’
Sanjay V Shah દ્વારા
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रणकार
एक मिनट. घडी़ की निरंतर चलती टिकटिक में एक मिनट का समय कितना छोटा सा है! या फिर कितना लंबा है? वैसे तो समय अपने आप में कभी छोटा या लंबा नहि होता है. समय को जीने वाले की समय के बारे में सोच-समज़ ही समय की लंबाई, गहराई या उसकी कमी तय करती है. किसी किसी को बहूत ही छोटी उम्र में जिंम्मेदारीओं का एहसास हो जाता है. किसी किसी को बार बार टोकीए, कहीए और पानी की तरह कईं वर्ष बीत जाए फिर भी जिम्मेदारी का ज तक समज़ में नहि आता. ईन दो प्रकार की व्यक्तिओं में से पहले के लिए बीत रहा हर एक पल अमूल्य है तो दूसरे प्रकार की व्यक्ति के लिए बीत रहा वर्ष भी सस्ते में जान छूटी जैसा भाव रखता है. जब हम मनपसंद प्रवॄत्ति करते है तब कितना भी समय कम पडता है और जो मनपसंद नहि है वैसी प्रवॄत्ति करते है तब हर एक पल बोज़ सी लगती है. तभी तो एक मिनट कहीं पूरे भव के जितना महत्त्व रखती है तो कहीं अनचाहा भाव. अपने एक मिनट के महत्त्व को हर ईन्सान ने खुद ही निश्चित करना पडता है. ये महत्त्व घडी से, घटना से किसी और बात से कभी निश्चित नहि हो सकता. “एक मिनट…” बस ईतनी आवाज़ सुनाई दे उतने में ये बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि अगर चाहे तो सिर्फ एक मिनट में सारे जीवन की कहानी को बदल दिया जा सकता है. अगर एक मिनट को यूं ही खर्च कर दिया और सच्चे मन से अफसोस, पश्चाताप प्रतीत किया तो निर्णय भी कर लेना चाहिए कि एक मिनट खो देने की यह बडी़ गलती आखरी बार कर दी. क्यूं कि एक मिनट आप की गुलाम नहि है और आपकी ईच्छा से रूक जाए ईतनी लाचार भी नहि है. पर हां, उसका सम्मान कर सको तो वो आपके कदमों में माथा टेक देगी दुनिया में आपका नाम रोशन भी कर देगी. निर्णय आप ही को लेना है. आपको घडी़ की सिर्फ टिकटिक सुनाई दे रही है या फिर अनमोल एक मिनट?
– संजय वि. शाह ‘शर्मिल’
Sanjay V Shah દ્વારા
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